क्यों नहीं जाती हो तुम मेरी यादों से


ठंड का महीना  था,  ढल रही  थी  शाम
मां के संग खेतों में कर रही थीं तुम काम
कलरव करते पंछी लौट रहे थे अपने निवास
कुछ अमरूद के पेड़ पर ही  कर रहे थे वास

मां के पीछे छुपकर, नजरे झुका के मुस्कुराना
नीले  शर्ट  की  तारीफ  इशारों   से  जताना
तुम ही  हो  मेरे  सपनों  का  दर्पण
करती हूँ तुम पे जीवन सारा अर्पण 
तुम्हारा वह मासूम चेहरा हटता नहीं मेरी आँखों से
क्यों नहीं जाती हो तुम मेरी यादों से

संग गए थे  हम मेला  देखने
हँसी-ठिठोली में झूला झूलने
जब खाए थे मेले में पानी-पूरी,
कहा था तुमने, नहीं होगी अब दूरी

मैंने  तुम्हें  प्राकृतिक  दृश्य का चित्र  दिया था
प्यार से आँखों में देखकर तुमने उसे लिया था
यह तस्वीर नहीं, है हमारे प्यार की पहचान
देखूँगी  रोज  इसे , हे प्राणनाथ  मेरी  जान

फिर ना जाने क्या हुआ,मुकर गए तुम अपने वादों से
क्यों नहीं जाती हो तुम मेरी यादों से

क्यों चली गई तुम मेरी जिंदगी से दूर
क्या  थी  मजबूरी, या  हालात थे  क्रूर
अब रातों की तन्हाई से बातें करता हूँ,
पागलों  सा  इधर-उधर  भटकता  हूँ
वह मुस्कान, वो झुकी पलकें,अभी भी बसी हैं मेरी आँखों में।
क्यों नहीं जाती हो तुम मेरी यादों से

   

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