चमचें
हैं इस जहां में भांति भांति के चमचे
चमचों की बताता हूं आज मैं प्रवृत्ति
चाटुकारिता, दोगलेपन की रहती आवृत्ति
सिद्धांतहीन, स्वाभिमान से रहते कोसों दूर
चाटुकारिता में ये बनते हैं समाज में मशहूर
चमचे लगाते हैं नेताओं पे मस्का,
तलवे चाटने का लग जाता है चस्का
चमचे औरों से थोड़ा रहते ज्ञानवान
अंदर रहता इन पे अभिमान
चाटने में हो जाते हैं ये माहिर,
दिमाग से ये होते हैं बिल्कुल जाहिल
अपने स्वार्थ के लिए कहीं तक गिर जाते हैं
लोगों को मूर्ख बना के अपना उल्लू सीधा कर पाते हैं
सफेद नेताओं के पास ये प्रसन्नता से जाते हैं
अपने समाज की कमजोरी नेताओं को बताते हैं
नेता लोग समाज को आपस में लड़वाते है
चमचे इसका फायदा बखूबी से उड़ाते है
समाज को दीमक की तरह हैं खोखला करते
जिसका हर्जाना लोग हैं भरते
मन करता है उड़ा दूं ,लगा के कनपटी पर तमंचे
हैं इस जहां में भांति भांति के चमचे
हमको एक वाक्य मस्त दिखा
मान्यवर कांशीराम साहब ने क्या खूब लिखा
जिनको जवानी में चमचा गिरी की लत लग जाती है
उनकी सारी जिंदगी दलाली में गुजर जाती है
✍️✍️संदीप कुमार✍️✍️
( रजौली रायबरेली)
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें